Thursday, September 4, 2014

कुछ हिन्दी काविताएं बाल भारती से


यह कदंब का पेड़



यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता
सुन मेरी बंसी को माँ तुम इतनी खुश हो जाती
मुझे देखने काम छोड़कर तुम बाहर तक आती
तुमको आता देख बाँसुरी रख मैं चुप हो जाता
पत्तों मे छिपकर धीरे से फिर बाँसुरी बजाता
गुस्सा होकर मुझे डाटती, कहती "नीचे आजा"
पर जब मैं ना उतरता, हँसकर कहती, "मुन्ना राजा"
"नीचे उतरो मेरे भईया तुंझे मिठाई दूँगी,
नये खिलौने, माखन-मिसरी, दूध मलाई दूँगी"
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे





सुबहा

बड़े सबेरे मुर्गा बोला,


चिड़ियों ने अपना मुह खोला,


आसमान 
मे लगा चमकने,


लाल लाल सोने का गोला,


ठंडी हवा बड़ी सुखदाई,


सब बोले दिन निकला भाई





चल रे मटके तममक टू


हुए बहुत दिन बुढ़िया  एक

चलती थी लाती को टेक

उसके पास बहुत था माल
 
जाना था उसको ससुराल


मगर राह में चीते शेर

लेते थे रही को घेर

बुढ़िया  ने सोची तरकीब

जिससे चमक उठे तकदीर


मटका एक मंगाया मोल

लम्बा लम्बा गोल मटोल

उसमे बैठी बुदिया आप

वह ससुराल चली चुपचाप


बुढ़िया  गाती जाती यू

चल रे मटके तममक टू



टोपी और चूहा 

एक गाव मे चूहा रहता,
पी पी उसका नाम,
इधर उधर वा, घूम रहा था...
चिंदी मिली तमाम,

लेकर दर्जी के घर पहुचा,
टोपी की ले आस...
हाथ जोड़ कर किया नमस्ते,
चिंदी धार दी पास,

दर्जी मामा टोपी सी दो,
करो ना हूमें निराश,
नहीं सीली तो कपड़े काटू जितने तेरे पास....

टोपी की तयार रंगीली बढिया फुडनेदार
खूश हो कर पीपी बोला मामा बड़े उदार

ढोलक मिली कही से उसको पिता बारंबार
राजा की टोपी से अच्छी टोपी फुडनेदार

पास खड़ा था एक सिपाही वा था पहरेदार
पकड़ लिया पीपी को उसने फिर दी उसको फटकार

टोपी छ्छिनी मारा पिता राजा थे नाराज
हुए कैद में पीपी भय्या बंद हुई आवाज



मुर्गी और आंडा

बच्चो सुन लो नयी कहानी

यूं हस करके बोली नानी
बहुत दिनो की बात बातायून
सच्चा सच्चा हाल सुनाऊँ

ऐक बहुत था लोभी भाई
जिसकी ज़्यादा थी ना कमाई

रूउखी सूखी रोटी खाता
दुख मैं अपना समय बीताता

पर किस्मत ने पलटा खाया
लोभी के घर मैं धन आया

उसने मुर्गी पाली ऐक 
जो थी सीधी अति ही नाईक

दो सोने के अंडे प्यारे 
देती थी वो उठ भिनसारे

लोभी जब ये अंडे पता
खुशी से वो फूला जाता

पर लोभी मन मैं ललचाया
ये विचार उसके मन आया

क्यों नेया मर मुर्गी को डालूं
सारे अंडे साथ निकालूं

हो जौऊंगा मलमल 
हटे रोज़ का येह जंजाल

लोभी फोरन चाकू लाया
मुर्गी मारी खून बहाया

अंदा उसने ऐक ना पाया
रो रो रो बहुत पछताया